रायगढ़ में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय का अहम फैसला पत्नी की अभिरक्षा पर याचिका खारिज

रायगढ़, 29 सितंबर 2025 – छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में एक व्यक्ति की याचिका खारिज कर दी, जिसमें उसने अपनी पत्नी को उसके माता-पिता की अभिरक्षा से मुक्त करने की मांग की थी। अदालत ने इसे “गलत सूचना देने” और “कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग” मानते हुए याचिका खारिज की।

मामला क्या था?
रायगढ़ जिले के घरघोड़ा निवासी एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को उसके माता-पिता की अभिरक्षा से मुक्त करने के लिए हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी। उसने आरोप लगाया था कि उसकी पत्नी को अवैध रूप से उसके माता-पिता के पास रखा गया है और उसे स्वतंत्र रूप से रहने का अधिकार नहीं दिया जा रहा है। उसने यह भी दावा किया कि उसकी पत्नी और उनके होने वाले बच्चे की सुरक्षा खतरे में है।
मुख्य दावे और तथ्यों का सार
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पति ने कहा कि उसकी पत्नी “अवैध बंदी” है और उसे उसके माता-पिता की ‘अभिरक्षा’ से निकाल कर लाया जाए।
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पत्नी की ओर से पुलिस और उप-निर्देशाधिकारी (SDO), घरघोड़ा, रायगढ़ में 8 सितंबर को दर्ज बयान में कहा गया कि वह स्वयं अपनी इच्छा से अपने माता-पिता के घर रह रही है और वापस पति के घर नहीं जाना चाहती।
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न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्ता (पति) ने अदालत को यह धारणा देकर भ्रमित किया कि पत्नी का “अवैध बंदी” है, जबकि महिला ने स्पष्ट किया कि उसकी मंशा अलग है।
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इसलिए हाईकोर्ट ने वह याचिका खारिज कर दी।
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कोर्ट ने यह भी विचार किया कि यदि ऐसे अभिरक्षा वाद का दुरुपयोग हो रहा हो, तो भारी लागत (costs) लगाए जाने की संभावना है, लेकिन इस मामले में वकील की दया याचना के कारण न्यायालय ने लागत लगाने से परहेज़ किया।
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कोर्ट ने इस तरह के मामले में यह स्पष्ट किया कि यदि महिला स्वयं यह कहती है कि वह जिस स्थान पर है, वहां रहने में वह स्वतंत्र है और उसे जबरदस्ती नहीं रखा गया, तो ऐसी याचिका स्वीकार नहीं हो सकती।
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इस तरह का केस संविधान की अनुच्छेद 226 (न्यायालयों को समान अधिकार देना) की शक्ति के अंतर्गत आया था जिसमें याचिका प्रस्तुत की गई थी।
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इस फैसले से यह स्पष्ट हो गया कि अभिरक्षा याचिका केवल तभी सफल हो सकती है जब किसी व्यक्ति को सचमुच जबरन बंद रखा गया हो और उसकी स्वतंत्रता हनन हुई हो — यदि वह स्वयं रहने की इच्छा व्यक्त करती है, तो अदालत उसकी मंशा का सम्मान करेगी।
याचिका प्रस्तुत की थी, लेकिन हाई कोर्ट ने यह कह कर इसे खारिज कर दिया कि महिला ने स्वयं कहा कि वह अपने घर पर ही रहना चाहती है। The
अदालत ने क्या कहा?

अदालत ने मामले की सुनवाई के दौरान पाया कि पत्नी ने पुलिस और घरघोड़ा के उपमंडल अधिकारी के समक्ष 8 सितंबर को दिए गए बयान में स्पष्ट रूप से कहा था कि वह अपनी इच्छा से अपने माता-पिता के पास रह रही है और अपने पति के साथ नहीं रहना चाहती। अदालत ने यह भी माना कि याचिकाकर्ता ने जानबूझकर अदालत को गलत जानकारी दी और कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग किया।
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महिला ने स्वयं कहा कि वह अवैध बंदी नहीं है
पत्नी ने पुलिस और उप-निर्देशाधिकारी (SDO) के समक्ष दिए गए बयान में कहा कि वह अपने माता-पिता के घर स्वेच्छा से रह रही है, और वह वापस पति के घर नहीं जाना चाहती। इस तथ्य को अदालत ने महत्वपूर्ण माना। -
याचिकाकर्ता (पति) ने अदालत को भ्रमित किया
अदालत ने यह टिप्पणी की कि पति ने यह दावा किया कि पत्नी अवैध रूप से बंदी है — जबकि वास्तविकता यह थी कि पत्नी ने अपनी मंशा स्पष्ट की थी। यानी, याचिकाकर्ता ने “अवैध बंदी” का दावा करते हुए अदालत को भ्रामक परिस्थितियों में रखा। -
हैबियस कॉरपस की शर्तें पूरी नहीं हुईं
चूंकि व्यक्ति जिसकी अभिरक्षा (custody) से “रिहाई” की मांग की जा रही थी, ने स्पष्ट किया कि वह वहीं रहना चाहती है — तो ऐसे मामले में अभिरक्षा याचिका को स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए। अदालत ने यह निर्धारित किया कि इस तरह की याचिका तभी सफल हो सकती है जब व्यक्ति की स्वतंत्रता वास्तव में बाधित हो। -
भारी लागत लगाने पर विचार, परंतु अंत में माफ़ी
अदालत ने यह सोचा कि याचिकाकर्ता के दावे का दुरुपयोग हो सकता है, और इस कारण भारी लागत (cost) लगाने का इरादा था। लेकिन वकील के निवेदन पर न्यायालय ने लागत लगाने से परहेज़ किया। -
याचिका खारिज
इस आधार पर, उच्च न्यायालय ने हैबियस कॉरपस याचिका को खारिज कर दिया।
अदालत ने याचिकाकर्ता के खिलाफ भारी जुर्माना लगाने पर विचार किया, लेकिन उसके अधिवक्ता की दया याचिका पर विचार करते हुए जुर्माना नहीं लगाया।
कानूनी दृष्टिकोण
यह मामला भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत दायर किया गया था, जो उच्च न्यायालयों को मूल अधिकारों के उल्लंघन पर हस्तक्षेप करने का अधिकार देता है। हालांकि, अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ता ने इस अधिकार का दुरुपयोग किया।
1. हैबियस कॉरपस (Habeas Corpus) का दायरा
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यह याचिका भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 (उच्च न्यायालय की विशेष शक्तियाँ) या अनुच्छेद 32 (सुप्रीम कोर्ट) के अंतर्गत दायर की जाती है।
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उद्देश्य यह होता है कि यदि कोई व्यक्ति किसी की अवैध अभिरक्षा (illegal detention) में रखा गया है, तो अदालत उसकी स्वतंत्रता सुनिश्चित करे।
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लेकिन जरूरी शर्त यह है कि व्यक्ति वास्तव में अपनी मर्जी के खिलाफ रोका गया हो।
इस मामले में, पत्नी ने कहा कि वह अपने माता-पिता के घर स्वेच्छा से रह रही है और कहीं जाने के लिए बाध्य नहीं की गई। अतः हैबियस कॉरपस लागू ही नहीं होता।
2. विवाह और वैवाहिक अधिकार
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पति-पत्नी के बीच वैवाहिक संबंध होने से यह अधिकार नहीं बनता कि पति पत्नी को अपनी अभिरक्षा में रखने की कानूनी मांग कर सके।
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भारतीय कानून (जैसे हिंदू विवाह अधिनियम, 1955) में पत्नी को पति के साथ रहने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
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यदि पत्नी पति के साथ नहीं रहना चाहती, तो वह स्वतंत्र है। उसे बलपूर्वक ले जाने का अधिकार पति को नहीं है।
3. महिला की स्वतंत्रता और मौलिक अधिकार
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संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार सुनिश्चित है।
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यदि पत्नी कहती है कि वह अपने माता-पिता के घर रहना चाहती है, तो उसका निर्णय सर्वोपरि है।
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अदालतें यह मानती हैं कि संपूर्ण वयस्क महिला अपनी मर्जी से तय कर सकती है कि वह कहाँ और किसके साथ रहना चाहती है।
4. भ्रामक याचिका पर न्यायालय का रुख
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अदालत ने टिप्पणी की कि याचिकाकर्ता (पति) ने तथ्यों को इस तरह पेश किया जैसे पत्नी “कैद” में है।
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जबकि यह सच नहीं था।
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यह न्यायालय के लिए भ्रामक वाद (misuse of habeas corpus jurisdiction) की श्रेणी में आता है।
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ऐसी स्थिति में अदालतें सामान्यतः लागत (costs/penalty) लगाती हैं, ताकि इस तरह का दुरुपयोग रोका जा सके।
5. न्यायिक मिसाल (Precedent)
इस तरह के फैसले भविष्य के मामलों के लिए भी मार्गदर्शक बनते हैं:
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वयस्क महिला की इच्छा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाएगी।
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पति या परिवार किसी को भी यह अधिकार नहीं कि उसे जबरदस्ती किसी और के साथ रहने के लिए बाध्य करे।
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हैबियस कॉरपस केवल वास्तविक अवैध हिरासत के मामलों में ही उपयोगी है।
समाजिक संदेश
इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि अदालतें केवल तथ्यों और साक्ष्यों के आधार पर निर्णय लेंगी। किसी भी व्यक्ति को अपनी स्वतंत्रता और गोपनीयता का उल्लंघन करने का अधिकार नहीं है। यह निर्णय समाज में कानूनी प्रक्रियाओं के प्रति सम्मान और विश्वास को बढ़ावा देगा।
1. महिला की स्वतंत्रता सर्वोपरि है
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अदालत ने स्पष्ट किया कि पत्नी चाहे विवाहित हो या अविवाहित, वह एक स्वतंत्र नागरिक है।
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उसे यह अधिकार है कि वह तय करे कि कहाँ और किसके साथ रहना चाहती है।
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इसका संदेश यह है कि महिला को “संपत्ति” या “अभिरक्षा” की वस्तु नहीं समझा जा सकता।
2. विवाह संबंध में भी बराबरी का अधिकार
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पति-पत्नी का रिश्ता परस्पर सम्मान और सहमति पर आधारित होना चाहिए।
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यह सोच कि “पत्नी तो पति की जिम्मेदारी और नियंत्रण में है” अब स्वीकार्य नहीं।
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न्यायालय का निर्णय इस मानसिकता को तोड़ता है और बराबरी का संदेश देता है।
3. कानून का दुरुपयोग न करें
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इस मामले में पति ने अदालत से पत्नी को “छुड़ाने” की याचिका डाली, जबकि पत्नी स्वेच्छा से रह रही थी।
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अदालत ने संकेत दिया कि झूठे या भ्रामक आधार पर कानून का दुरुपयोग न्यायपालिका का समय और संसाधन बर्बाद करता है।
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इससे समाज को यह संदेश मिलता है कि कानून का उपयोग सत्य और न्याय के लिए होना चाहिए, निजी स्वार्थ के लिए नहीं।
4. परिवार और समाज की भूमिका
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अक्सर परिवार या समाज यह मान लेते हैं कि विवाह होने के बाद महिला का अपना स्वतंत्र निर्णय महत्वहीन हो जाता है।
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यह फैसला उस सोच को चुनौती देता है और बताता है कि समाज को महिलाओं के फैसलों का सम्मान करना चाहिए।
5. संविधानिक अधिकारों का महत्व
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यह निर्णय युवाओं को यह संदेश देता है कि संविधान और न्यायपालिका हर नागरिक की स्वतंत्रता और गरिमा की रक्षा करती है।
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इससे समाज में कानून पर भरोसा और लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान बढ़ता है।
इस मामले में अदालत ने न केवल कानूनी प्रक्रिया का पालन किया, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि किसी भी व्यक्ति के व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन न हो। यह निर्णय उन लोगों के लिए एक संदेश है जो कानूनी प्रक्रियाओं का दुरुपयोग करना चाहते हैं।
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